Sunday 22 May 2011

तुम्हे खोकर उस शाम.......

हाँ बेशक
तुम्हे खोकर उस शाम
मैंने तुमसे कहा था
तुम जैसी बहुत मिलेंगी
पर सच कहूँ
तो
आज तक अकेला हूँ मै
हजारो की भीड़ में
दोस्तों की महफ़िल में
कालेज की कंटीन में
घर वालो के साथ भी
आज कल तो ख्वाबो में भी
बहुत तनहा हूँ मै
हाँ सच में अकेला हूँ मै
हाँ पगली
अब सुबह कोई
गुड मोर्निंग का मैसेज
नहीं करता,,,
अब मै चाय की प्याली ले शाम
छत पर भी नहीं टहलता
और हाँ वो मोहल्ले का मन्दिर    
जहाँ रोज ही रात
 आरती में हम मिलते थे
अब वहा नहीं जाता
पर हाँ
ज़ब  शहर   की उन पुरानी गलियों
से हो गुजरता हूँ
तब
तुम बहुत याद आते हो..
वो गलियां
जहाँ
हम हाथ में हाथ डाले
जाने कितने
वादे करते हुए
घुमा करते थे घंटों ...
याद है तुम्हे
कितना हँसती थी तुम
मेरी उन फिजूल की बतों पर....
हाँ वो हसी आज भी
गूंजती है इन फिजाओ में...
पर अब क्या
तुम दूर हो गयी मुझसे
बहुत दूर..
सिर्फ धुंधली यादो का रिश्ता है तुमसे....
पर मै झूठ नहीं कहता
बेशक
तुम्हे खोकर उस शाम
मैंने कहा था तुमसे 
तुम जैसी बहुत मिलेंगी
पर सच कहूँ
तो
आज तक अकेला हूँ मै
बहुत अकेला........
             अविनाश मिश्र







Monday 2 May 2011

तुम्हारी बहुत याद आई...

सच में आज तुम्हारी बहुत याद आई... शाम को अपने दोस्त को अपनी प्रेमिका से बात करते हुए सुना तो मुझे बहुत अजीब लगा मैंने अपने आप को बहुत अकेला  महसूस   किया.. और मै न जाने तुम्हारी किन यादों में खो सा गया जो सिर्फ यादें बनकर ही रह गयी... मै पागल था शायद नहीं जनता था प्यार क्या होता , या फिर तुम न जानती थी... तुमने उस दिन कहा तो था तुमने मुझे सिर्फ एक दोस्त ही  माना  था ./ और मै....?
           तुम कुछ पल प्यार से बात कर लेती थी मै तो बस उसे ही प्यार समझ बैठा था ..न जाने कितने ही लोगो से कहा फिरता था की वो भी मुझे चाहती है.. पर  असलियत से अन्जान था,,, और फिर एक दिन वो भी आया जब तुमने मुझसे कहा था - जरा अपनी लिमिट में रहा करो.. भूल जाओ सब कुछ ... मै अपनी शाम की कोचिंग छोड़ न जाने कितना रोया था अजनबी राहों पर.. बहुत मजबूर हो  रात घर गया था... उस रात चाँद कुछ खामोश   था ...मै अपनी छत पर जाकर अकेला ही बैठा  था कुछ देर   और याद करता रहा था तुम्हे ,  सिर्फ मै जनता था कितना तडपा था तुम्हारे लिए पर तुमने तो अपना फैसला सुना दिया था ..
मैंने फैसला किया था भूल जाऊंगा तुम्हे , शाम को छत पर भी नहीं जाऊंगा , पर शायद खुद से ही झूठे वादे  कर रहा था , तुम तो गुमनामियों के अँधेरे में न जाने कहाँ खो गयी पेर मै आज भी वहीँ रुका हूँ .. सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे इंतजार में....

Wednesday 27 April 2011

तुम क्यों रो रही थी..?

कल शाम
तुम क्यों रो रही थी..?
देखा था राह चलते
तुम्हे
उस मोड़ पर..
और फिर दो मोती 
तुम्हारी आँख पर...
क्या फिर किसी ने तोडा था 
दिल तुम्हारा..
या फिर खुद को  
महसूस किया था 
बेसहारा...
क्या फिर अहसास हुआ था
मेरी तन्हाई का
या फिर
अपनी उस बेवफाई का..
तुम जानती तो थी
मेरे हालत
न जाने कितने ही अरमान
घुटे थे उस शाम
और फिर एक लम्बा 
स्वप्न
न जाने कितने दिनों
या वर्षो का ..
और फिर अचानक कल शाम
देखा तुम्हे
रोते ...
सोचा था कभी मिलूँगा
तो हस के बात  ही करोगी
पर
ये क्या?
तुम तो आज फिर
वही कहानी लिए मिली..
क्या हुआ जो वो
समझ न पाया
तुम्हारी धड़कन
और चला गया पल में ही
आँखों से ओझल
कर के तुम्हारे ख्वाबो का क़त्ल
भूलने को न जाने कितनी
यादे देकर
तुम्हे रोता देख
मै भावुक हूँ
पर याद करो वो शाम
तुम हसी थी मुझपर
और खूब हसी थी
मुझे रोता देख
कुचला था मेरे अरमानो को
न जाने कितनी बाते
दफ़न हुई थी
दिल में
पर जब देखा तुम्हे
रोते
तो  न जाने क्यूँ
याद आई मुझे
तुम्हारी हंसी
वो बचपना
वो मासूमियत
सच ही तो कहता था दोस्त
जिंदगी एक सी नहीं
रहती हर दम
कभी तुम हसी थी मुझे रोता देख
पर आज मै न
हस पाया ....
शायद यही अंतर था
तुझमे और मुझमे
तुम आज भी उसकी दीवानी थी
और मै आज भी
तुमसे प्यार करता हूँ...
कल शाम जब देखा तुम्हे.